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हास्य-व्यंग्य >> कस्बे का फिल्मी मसीहा

कस्बे का फिल्मी मसीहा

नरेन्द्र तिवारी

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :115
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4065
आईएसबीएन :81-7043-540-4

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प्रस्तुत है हास्य-व्यंग्य संग्रह....

Kasbe Ka Filmi Masiha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


हिन्दी व्यंग्यकारों में नरेन्द्र तिवारी एक सुपरिचित नाम है। वे कई दशक तक ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ के हास्य-व्यंग्य स्तम्भ ‘लाल-बेताल’ के प्रमुख व्यंग्यकार रहे हैं। उनकी अनेक व्यंग्य रचनाएँ पर्याप्त लोकप्रिय एवं चर्चित रहीं। उनके एक पात्र ‘पं. रामखड़ाऊं’ तो हास्य-प्रेमियों के बेहद प्रिय हैं। श्री तिवारी जी की मंजी हुई साफ-सुथरी कलम भाषा की सम्पूर्ण शिष्टता, सौजन्य और विनम्रता बनाये रखते हुए भी पूरी धारदार चोट करने से कहीं भी नहीं चूकती। निहायत सीधी-सादी बात भी उनकी भाषा से गुजरती हुई अपने आप तेजाबी नश्तर में तब्दील हो जाती है और उनकी कहन की नोकदार चुभन पाठक के भीतर तक उतर कर उसे सोचने पर विवश कर देती है। खुद पर हँसना और अपनी ओर रुख करके व्यंग्य-बाण साधने जैसे कठिन काम भी वे बखूबी करते हैं। साथ ही हिन्दी के सौष्ठिव में सुगन्धि बसाने के लिए उसमें उर्दू शब्दावली की छौंक लगाने में भी उन्हें महारत हासिल है।

श्री तिवारी ने मूलतः शाश्वत सामाजिक समस्याओं पर ही अपनी कलम की धार आजमाई है। यही कारण है कि हमें इन कथाओं में चित्रित समस्याओं और पात्रों से एक परिवेशगत अपनापे का बोध होता है। हम यहाँ उनकी चुनिंदा सत्रह व्यंग्य-कथाएँ आपके लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।

सत्रह मणियों का रत्नहार


    श्री नरेन्द्र तिवारी द्वारा रचित ‘क़स्बे का फ़िल्मी मसीहा’ उनकी दूसरी व्यंग्य-कृति है। उनकी पहली व्यंग्य-रचना ‘किस्से पं. रामखड़ाऊँ’ के ‘हिन्दी व्यंग्यकारों के बीच ही नहीं अपितु हिन्दीभाषी पाठकों के बीच भी इतनी चर्चित एवं लोकप्रिय हुई कि आज उसकी एक भी प्रति दूसरे संस्करण हेतु उपलब्ध नहीं हो पा रही है। श्री तिवारी हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी, के. पी. सक्सेना आदि की परम्परा में एक नवीनतम कड़ी हैं। वे एक श्रेष्ठ कवि भी हैं इसलिए उनकी व्यंग्य-रचनाओं में जहाँ सरकारी कार्यप्रणाली की विसंगतियों और सामाजिक अवमूल्यनों की ओर व्यंग्यात्मक संकेत किये गए हैं वहीं उनके कवि रूप ने उनकी व्यंग्य-रचनाओं को एक रसाद्यता भी प्रदान की है। व्यंग्य-विधा में यह उनका मौलिक योगदान है।

    वर्तमान राजनीति के पाखंडों, षड्यंत्रों और विद्रूपताओं को प्रकाशित करने वाली रचनाएँ बहुधा थोड़े दिनों बाद ही अपनी गुणवत्ता एवं महत्त्व खो देती हैं और पाठकों द्वारा उनके सन्दर्भ भुला दिये जाते हैं लेकिन श्री तिवारी की इस प्रकार की रचनाएँ सकारात्मकता के साथ मूल्यों की स्थापना की ओर भी संकेत करती हैं इसलिए ये सार्वकालिक होने की क्षमता रखती हैं।

    ‘क़स्बे का फ़िल्मी मसीहा’ की ये सत्रह व्यंग्य-कथाएँ युगीन समस्याओं के एक निर्मल दर्पण के समान हैं जिनमें हमारे आसपास बिखरा वर्तमान परिवेश प्रतिबिम्बित होता है। सुधी पाठकों को इन कथाओं में समाज एवं तंत्र की विसंगतियों के ऐसे सही व स्पष्ट बिम्ब दृष्टिगत होंगे जिन्हें व्यंग्य के तीखे रंगों से उकेरा गया है। मुझे विश्वास है कि नरेन्द्र तिवारी की यह कृति बहुत ही लोकप्रिय होकर साहित्य में ख़ूब-ख़ूब सम्मान प्राप्त करेगी। यह कृति सत्रह मणियों का एक रत्नहार है। इस रत्नहार को जो भी धारण करेगा उसका मन ही नहीं उसका परिवेश भी आनन्दित और प्रकाशित होगा।

रामनवमी
दिनांक : 2 अप्रैल, 2001

गोपालदास ‘नीरज’
जनकपुरी, मैरिस रोड, अलीगढ़

क़स्बे का फ़िल्मी मसीहा : बच्चू बाबू


    बच्चू बाबू आज क़स्बे के प्रमुख व्यक्ति हैं। वे उन्नति और लोकप्रियता की राह पर ख़रगोश की तरह कुलाचें मारते हुए आगे बढ़े हैं। सिनेमा मैनेजर के बाद सामाजिक कार्यकर्ता से लेकर टाउन एरिया की चेयरमैनी तक के मोर्चे उन्होंने हिटलर की फौजों की रफ़्तार से फ़तह किए और आज पूरे क़स्बे में एक पत्ता भी बिना उनकी मर्ज़ी के हिलने की हिम्मत नहीं कर सकता। क़स्बे के कुछ पुराने बाशिंदे जानते हैं कि बच्चू बाबू को इस क़स्बाई संसार में प्रतिष्ठा की बुलन्दियों पर पहुँचाने वाला सिर्फ़ बाइस्कोप है जिसे आज सिनेमा के नाम से जाना जाता है। जिस तरह अमेरिका ने जापान पर अचानक ही अणुबम विस्फोट करके सारे संसार को चौंका दिया था उसी तरह बच्चू बाबू ने एक दिन अचानक ही क़स्बे में बाइस्कोप लाकर वहाँ के शान्त जीवन में हलचल पैदा कर दी थी। क़स्बे के लोग बाइस्कोप जैसी चीज़ के अस्तित्व से भी वाक़िफ़ न थे। अतः पहली बार चाँद की टुकड़ा धरती पर लाने से जो गौरव नील आर्मस्ट्रांग को प्राप्त हुआ है वही बच्चू बाबू को क़स्बे में सिनेमा ले आने पर प्राप्त हुआ। वे आज तक गाँव में सभ्यता की ज्योति के प्रवर्तक माने जाते हैं। यह बात बहुत पुरानी नहीं सिर्फ़ चन्द साल पहले की है। किसी बड़े शहर में रहकर, दूसरे-चौथे दिन सिनेमा देखकर यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि क़स्बाई जीवन पर सिनेमा के कितने दूरगामी प्रभाव हो सकते हैं और क़स्बे में पहली बार टूरिंग टॉकीज लाकर कोई व्यक्ति युग-प्रवर्तक और मसीहा जैसी प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है।

    बच्चू बाबू के पिता मुंशी मनसुखलाल अंग्रेज़ी राज में पटवारी थे। उन दिनों पटवारी की हैसियत छोटे-मोटे नवाब जैसी हुआ करती थी। क़स्बे में मुंशीजी ही एक मात्र ऐसे व्यक्ति थे जो साल में एकाध बार शहर आते-जाते थे और बड़े हाकिम-हुक्मरानों से उनके सम्बन्ध थे। गाँव वालों को उनसे एक ही शिकायत थी कि वह तो शहर जाकर अपना मनोरंजन कर आते है पर गाँव वालों के मनोरंजन के विषय में कभी नहीं सोचते। ग्रामवासियों की इच्छाओं का ख़्याल रखना मुंशीजी की सियासत का हिस्सा था। वे इस बात को समझते थे कि आदमी को स्वभावतः चहल-पहल, हंगामा पसन्द होता है और यदि इस हंगामापसन्दी को सही दिशा न दी जाए तो यह आन्दोलन और हड़ताल का भी रूप ले सकती है। अतः उन्होंने क़स्बे में पड़ी पचासों एकड़ ऊसर भूमि पर प्रतिवर्ष पन्द्रह दिन पशु मेला लगाने की स्वीकृति तत्कालीन ब्रिटिश कलक्टर से ले ली। उद्देश्य यह रखा गया कि इसमें गाँव वालों को अच्छी नस्ल के पशु मिल जाएँगे और खेती की पैदावार बढ़ जाएगी। क़स्बे वाले ख़ुश हुए कि पन्द्रह दिन हंगामा रहेगा। मुंशीजी ख़ुश हुए कि ज़मीन पर कब्ज़ा हुआ और मेले की आमदनी घर में आई। बनिया ख़ुश कि उसने रेबड़ियाँ कम तौलीं और ग्राहक ख़ुश कि रेबड़ियों में चवन्नी आ गई। इस बात को पचास साल से कुछ ऊपर ही बीत चले। मेले की आमदनी जैसे और भी तमाम ज़रियों से मुंशीजी ने क़स्बे में एक पक्की हवेली बनवाई। नाम रखा ‘पटवारी हाउस’ जो सुविधानुसार थोड़े ग्रामीणीकरण के उपरान्त ‘पटौरी हौस’ के नाम से विख्यात हुई। अपने इकलौते लड़के को, जिसे वे प्यार से बच्चू बाबू कहते थे, डिप्टी साहब बनाने की तमन्ना अपने दिल में ही बसाए एक दिन वे ‘पटौरी हौस, पशु मेला तथा अपनी पत्नी को इसी लोक में छोड़कर गोलोकवासी हुए। कालांतर में इसी पशु मेले ने गाय की पूँछ बनकर बच्चू बाबू को संकटों की वैतरणी पार कराई तथा प्रतिष्ठा के चरम शिखर पर पहुँचने में पूर्ण सहायता की।

    मुंशी मनसुखलाल ने, जिनके निकट डिप्टी साहब से नीचे का आदमी-आदमी की परिभाषा की परिधि में ही नहीं  आता था, बच्चू बाबू को पढ़ा-लिखा कर आदमी बनाने के चक्कर में शहर के स्कूल में दाख़िल कराया। उस समय तक शहर जाकर स्कूल में पढ़ना न्यूयार्क जाने से भी अधिक प्रतिष्ठा का विषय था। गाँव से अनायास शहर आ गए युवक बच्चू बाबू के लिए वहाँ शिक्षा के अतिरिक्त अन्य अनेक आकर्षण थे। फलतः चढ़ती उमर अनुभवहीनता के चश्मे ने अपना चमत्कार दिखाना प्रारम्भ किया और उनकी दिनचर्या से शिक्षा धीरे-धीरे फ़ेड-आउट होने लगी। उनके जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन तब आया जब उन्होंने पहली बार बाइस्कोप देखा। छोटे शहर का थियेटरनुमा सिनेमाघर उनका मक्का-मदीना बन गया और वे स्कूल जाने की नियमबद्धता का परिपालन छविगृह जाने में करने लगे। शिक्षा, शिक्षालय, पुस्तकें और अध्ययन कब और कैसे सुरैया, नरगिस और निम्मी की केशराशि के गहरे अँधेरे में खो गए यह बच्चू को ज्ञात ही न हो सका। अपने आकर्षक गौरवर्णीय व्यक्तित्व और नित्य छविगृह में उपस्थिति के कारण उनकी मैत्री गेटकीपरों के माध्यम से मैनेजर की सीढ़ियाँ चढ़ती हुई मालिक तक पहुँच गई। बच्चू बाबू इन मैत्री सम्बन्धों को बड़ा महत्त्व देते और उन्हें बनाए रखने में वैसे ही सावधानी बरतते जैसी आजकल के ग़रीब देश अमेरिका से अपने सम्बन्ध बनाए रखने में बरतते हैं। अपने इकलौते आँख के तारे द्वारा बारम्बार प्रयास के उपरान्त भी आठवीं कक्षा की लक्ष्मण रेखा पार न कर पाने को शक्ति का अपव्वय समझ कर उनकी विधवा माँ ने उन्हें गाँव बुला लिया और शक्ति के बहाव को नई दिशा प्रदान करने के विचार से बच्चू बाबू की शादी कर दी गई। इस समय तक बच्चू बाबू जीवन के इक्कीस बसन्त देख-भोग चुके थे।

बस, यहीं से उनके प्रभावशाली और प्रतिष्ठित जीवन का प्रारम्भ हुआ। शादी के बाद वे क़स्बे के बाशिन्दे हो चुके थे। कभी-कभी वे ग्रामीण जीवन से सामंजस्य कर पाने में अपने को असमर्थ पाते और एक अज्ञात अभाव उन्हें खटकता रहता। मन में बहुत गहराई तक रची-बसी नरगिस और निम्मी की आकर्षक मुद्राओं ने बच्चू बाबू को अधिक दिनों तक अपनी नवयौवना पत्नी के प्रति आकर्षित नहीं रहने दिया। वे पत्नी से विमुख तो नहीं हुए पर खिन्न अवश्य रहने लगे। ऐसी ही बेचैनी के दिनों में उनके पिता द्वारा संस्थापित पशु मेला प्रारम्भ हुआ। अवसर से लाभ उठाने की कुशाग्र बुद्धि बच्चू बाबू ने अपने पटवारी पिता से विरासत में पाई थी। सिने दिशा-उर्वर बच्चू बाबू के मस्तिष्क में एक योजना का प्रसव हुआ और वे शहर चल दिए। वहाँ उन्होंने अपने मित्र सिनेमा मालिक को अपने क़स्बे में आयोजित होने वाले पशु मेले की भूमिका समझाई और इस बात पर बल दिया कि मेले में रात्रि कार्यक्रमों का नितान्त अभाव होने के कारण वहाँ सिनेमा दिखा कर अच्छा पैसा बनाया जा सकता है। सिनेमा मालिक की वणिक बुद्धि ने प्रस्ताव के महत्व को समझा और मेले नुमाइशों में भेजे जाने वाले अपने टूरिंग टाकीज़ को भेजने पर राजी हो गया। उसने अपने सामान की सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए बच्चू बाबू को तात्कालिक रूप से मैनेजर पद ग्रहण करने की शर्त रखी। साथ ही साथ यह चेतावनी भी दी कि यदि उस गँवई गाँव में कोई दंगे जैसी स्थिति पैदा हुई और सामान को क्षति पहुँची तो उसकी पूर्ति हेतु बच्चू बाबू ही उत्तरदायी होंगे। यह शर्त उन्होंने सम्पूर्ण रूप से स्वीकार कर ली और फ़िल्म की प्रचार सामग्री लेकर वापस लौटे।

    क़स्बे के बाज़ार कहे जाने वाले चौक में जब बच्चू बाबू ने फ़िल्म का पहला पोस्टर चिपकाया तभी यह ख़बर प्लेग की तरह फैल गई कि गाँव में पहली बार बाइस्कोप आ रहा है। फ़िल्म के कल्पित आकार-प्रकार पर चर्चाएँ होने लगीं। बुज़ुर्गों ने कहा कि बच्चू लायक बाप का लायक बेटा है और अपने बाप द्वारा लगाए गए पशु मेले रूपी पेड़ को सींच रहा है। युवकों के वे नायक हो गए और बन्द किवाड़ों की दरारों से सैकड़ों ज़नानी आँखें उन्हें उत्सुकतापूर्वक निहारने लगीं।

    क़स्बे के हर छप्पर और चौपाल पर फ़िल्म के पोस्टर बच्चू बाबू की कीर्ति- पताकाओं की तरह फरफरा रहे थे और उनकी नीतिज्ञ बुद्धि स्थिति को तोल रही थी। उन्होंने साँझ होते न होते क़स्बे की रामलीला मण्डली के युवकों को, जो ख़ाली दिनों में चोरी, राहजनी जैसे काम भी कर लिया करते थे, अपने घर बुलाया और आसपास के गाँवों में बाइस्कोप के प्रचार के काम का सौदा कर लिया। वे इस बात को अच्छी तरह समझते थे कि इस गँवई गाँव में कोई भी काम खलों की स्वीकृति के बिना सम्भव नहीं है। अतः सवेरे अखाड़ा-कुश्ती और रात को डकैती-क़त्ल करने वाले पहलवानों से पारिश्रमिक तय करने के बाद बच्चू बाबू ने उन्हें गेटकीपरी और व्यवस्था बनाए रखने के काम दे दिए। उनकी दूरदर्शिता ने यही ठीक समझा कि व्यवस्था बनाए रखने का काम व्यवस्था भंग करने वालों को ही सौंपा जाए। इन अतिवादी युवकों के बाद जो भी छुटभइये बचे उन्हें ख़ोमचा लगाने, पान-बीड़ी बेचने जैसे काम देकर बच्चू बाबू ने व्यवस्था और सुरक्षा के काम से मुक्ति पा ली। बेकारों, बेरोज़गारों और उपद्रवियों ने बाइस्कोप की जय बोली कि उन्हें काम मिल गया। वे सहसा ही काम-काजी आदमी की तरह सिनेमा के प्रचार की मशीन बन गए। बाइस्कोप के प्रताप और बच्चू बाबू की कृपा से क़स्बे का कोई युवक बेकार और बेरोज़गार न रहा।

    क़स्बे में सिने-उद्योग का पहिया तेज़ी के साथ घूमने लगा। दूसरे उद्योग का आर्थिक वातावरण इस नए उद्योग की चपेट में आने लगे। हाथ के कामगरों, ठठेरों जुलाहों, लुहारों ने अपने हाथों की गति तेज़ की और बाइस्कोप के टिकट ख़रीदने के लिए अपना उत्पादन बढ़ाने लगे। काछी की सब्ज़ियाँ सस्ते दामों में बिकने लगीं। किसानों ने अपने अन्न भण्डार बाज़ार में लाने शुरू कर दिए। भेड़ों की पीठ पर से असमय ही ऊन उतर कर आढ़ती की दुकान पर आने लगी। पशु मेले में चहल-पहल चढ़ गई और जानवरों का क्रय-विक्रय सस्ते दामों पर होने लगा। उत्पादन से बाज़ार पटा पड़ा था। आढ़ती दनादन माल ख़रीद रहे थे। हाथी एक टके में बिकने वाली कहावत प्रत्यक्ष दिखाई दे रही थी। चीज़ें सस्ती हो गईं और आम ग़रीब जनता ख़ुशहाल होने लगी। बाज़ार भर में बिल्लू चाय वाला ही एक ऐसा था जिसकी बिक्री सुरसा के मुख की तरह बढ़ गई थी क्योंकि उसने सिनेमा का वह पोस्टर, जिसमें नायिका के अधखुले वह वक्ष स्तूप की ऊँची गोलाइयों की तरह प्रदर्शित थे, अपनी दूकान में टाँग रखा था। लोग एक दूसरे की नज़र बचाकर उसे घूरते और इस घूरते रहने की प्रक्रिया में चाय का गिलास मध्यस्थ की भूमिका अदा करता रहा। बच्चू बाबू इस अनायास परिवर्तन की गति को देखकर सोचते कि रोज़गार देने, उत्पादन बढ़ाने और महँगाई घटाने के सन्दर्भ जो काम समाजवाद अब तक न पूरा कर सका उसे सिनेमा ने जादुई कमाल की तरह कर दिखाया।

    सिनेमा के तम्बू कनातें तन चुके थे। बाँस-बल्लियाँ गाढ़कर घुसने के लिए गेट बनाए गए जिन पर लाठी लिए हुए गेटकीपर तैनात थे। आसपास दस-पन्द्रह कोस की परिधि में जितने गाँव बसे थे उनकी अधिकतर जनसंख्या कनात तान कर बनाए गए हॉल के बाहर टिड्डी दल की तरह उमड़ी पड़ रही थी। सारे टिकट अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के टिकटों की तरह हाथों-हाथ बिक चुके थे। फिल्म का पहला शो बहुत सफल रहा। बस एक छोटा-सा व्यवधान आया जिसे बच्चू बाबू के वचनों ने पार कर लिया। बात यों हुई कि उस फिल्म में रेलगाड़ी गुजरने का एक ऐसा दृश्य था जिसमें दूर से आती हुई रेलगाड़ी का एकदम फ्रण्ट क्लोज-अप साट आया तो कनात के अन्दर बैठी हुई ग्रामीण जनता बिदक गई और ‘चढ़ा दी’ ‘मार डाला’ के नारे लगा कर खड़ी हुई। भगदड़ के क्षणों में सिनेमा बन्द कर दिया गया और बच्चू बाबू ने सिनेमा-प्रेमी समुदाय को चिल्ला-चिल्ला कर यह समझाया कि वे डरें नहीं, ट्रेन का ड्राइवर बहुत होशियार है। खुद ही बचा कर निकाल ले जाएगा। बच्चू बाबू के कहने से दर्शक अपने प्राणों की बाजी लगा कर फिल्म देखने पर फिर तैयार हुए और जब रेलगाड़ी वाकई बच कर निकल गई तब उन्हें खुद भी ड्राइवर की दक्षता पर विश्वास हो गया। इस दुर्घटना में सिनेमा की कुल बीस-बाईस फोल्डिंग कुर्सियों की क्षति हुई जो बैठने के लिए आई थीं पर खाली पड़ी हुई थीं क्योंकि उन पर बैठने के बाद दर्शक को अपना बैलेन्स बनाए रखने का उत्तरदायी स्वयं होना होता था। ज़ाहिर है कि कुछ लोगों के हाथ-पाँव और दो-एक बाँस-बल्लियाँ भी अवश्य टूटे होंगे पर उनकी आवाज़ें पुराने जेनरेटर की जम्बो जैट जैसी आवाज़ के नीचे दब कर दफ़न हो गईं। इसके बाद पशु मेले की अवधि भर बच्चू बाबू निर्बाध रूप से पैसा और प्रभाव बटोरते रहे।

    पशु मेले की समाप्ति पर जब बच्चू बाबू ने बाइस्कोप वापस जाने का कार्यक्रम घोषित किया तो समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधि-मण्डलों ने उनसे भेंट की। कुछ ने उजाले में कुछ ने अंधेरे में। जो लोग अंधेरे में आये उनमें इलाके के नामी चोर और राहजन शामिल थे। उन्होंने हाथ जोड़कर फरियाद की कि तमाम इलाके के चोर और उठाई-गीरे बच्चू बाबू की गाएँ हैं। वे जब चाहें तब उन्हें काट दें पर बाइस्कोप वापस भेज कर उनके पेट पर लात न मारें। उन्होंने यह प्रस्ताव भी रखा कि यदि बच्चू बाबू चाहें तो चोरों की बढ़ती आमदनी में से कुछ पत्रपुष्पादि स्वीकार कर लिया करें। दूसरा डेपुटेशन उन बिगड़े-दिल नौजवानों का आया जो अरहर और गन्ने के खेतो में अपनी प्रेमिकाओं के साथ चन्द रसीले क्षण व्यातीत करना ही अपने जीवन का परम लक्ष्य समझते हैं। के नेता ने कहा कि बच्चू बाबू अभिभावकों को सिनेमा देखने की आदत डालकर प्रमियों के रसीले क्षणों में जो वृद्धि करवाई है उसके लिए वह निजी रूप से तथा अपने समुदाय की ओर से उनका आभार प्रदर्शित करता है और यह निवेदन करता है कि अभी क़स्बे में सिनेमा दिखाया जाता रहे जिससे प्रेमी समुदाय को सिनेमा का जीवन्त व वास्तिवक स्वरूप स्वछन्दतापूर्वक सम्पादित करने का सुअवसर प्राप्त होता रहे। रात गए बच्चू बाबू की पत्नी भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करने से बाज़ नहीं आयीं और उन्होंने दूध का गिलास यह ज्ञापन चस्पा करके पेश किया कि ग्राम्य देवियों की ऐसी वांछा है कि बाइस्कोप वापस न भेजा जाए क्योंकि कस्बे की अनेक देवियाँ अभी तक उस जादू नगरी का साक्षात् नहीं कर पाई हैं।

    दिन के उजाले में वे लठैत, डकैत और हत्यारे आए जिनको बाइस्कोप ने शरण व रोज़गार दिया था। व्यापारी आए कि ग्रामीण उद्योग-धन्धों का उत्पादन बढ़ने के कारण उनकी आय बढ़ गई है और इस आर्थिक संकट के समय उत्पादन घटाने का कारण उत्पादन करना देश के व्यापाक हित पर भीषण कुठाराघात होगा। ग़रीबों ने ‘पटौरी हौस’ के मुख्य द्वार पर ‘बच्चू बाबू ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाए और प्रार्थना की कि बाइस्कोप के कारण बाज़ार सस्ता हो गया है। उन्हें जीवनयापन में सहूलियत महसूस होने लगी है। अतः ऐसी महँगाई में ग़रीबों के बच्चों के मुँह से कौर न छीना जाए। क़स्बे के नेता भी जनता की आवाज़ बुलन्द करने पहुँच गए। बच्चू बाबू ने उनका स्वागत-सत्कार किया और फिर क़स्बे पर एहसान-सा लादते हुए वह घोषणा कर दी कि सिनेमा अभी वहीं रहेगा।

    बच्चू बाबू के प्रोजेक्टर के चक्के घूम-घूमकर क़स्बे के जनमानस पर फ़िल्मी संस्कृति की अमरबेल फैलाते रहे। सिनेमा के तम्बू-कनातें पहले टीन की दीवारों फिर ईंट-सीमेंट के पक्के-पुख़्ता हॉल में बदल गईं। सिनेमा के साथ ही क़स्बे का आचार, व्यवहार और व्यापार भी बदलने लगा। किशोरियों को ढीली-ढाली तम्बूनुमा कमीज़ें और लहँगे पहनना अशोभन लगने लगा। उन्हें खुले गले और बिना बाँहों के ब्लाउज़ के साथ रंग-बिरंगी साड़ियों और श्रृंगार-प्रसाधनों की भी अभिलाषा होने लगी। युवक जो कमर के नीचे लाल अँगोछा लपेट कर ही काम चला लेते थे, उन्हें डाग कालर की कमीज़ें और तंग मोहरी के पैंट भाने लगे। चप्पल-जूते जो शोभा प्रतिष्ठा की चीज़ समझे जाते थे अब हर समय पहने जाने लगे। बच्चू बाबू क़स्बे की बढ़ती हुई आवश्यकताओं को पैनी आँखों से देख रहे थे। क़स्बे का मनोपरिवर्तन देखकर उन्होंने सिनेमा हॉल के चारों तरफ़ बीसियों दुकानें बनवाईं और शहर से दर्ज़ी, हेयर सैलून, रेडीमेड कपड़े, श्रृंगार-प्रसाधन, फोटोग्राफी, फैशनबिल साड़ी केन्द्र, मार्डन जूता भण्डार आदि के व्यापारियों को बुलाकर उनकी दुकानें खुलवा दीं। क़स्बा प्रगति की ओर दौड़ पड़ा।

    इस समय तक वे युवक समुदाय के नेता और क़स्बे के सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्ति बन चुके थे। उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा दिनोंदिन बढ़ रही थी। शादी-ब्याहों तक में भी उनकी बात मानी जाने लगी थी। जो लड़का किसी प्रकार शादी करने को तैयार न होता वे पलक झपकते उसे रोज़ी कर लेते। जिन लड़कियों की शादियाँ किसी शारीरिक विकृति के कारण नहीं हो रही होतीं वे भी बच्चू बाबू के माध्यम से सम्मन्न हो जातीं। झम्मनलाल की कानी लड़की की शादी तक उन्होंने मनचाहे लड़के से करा दी। उस लड़के के मन में बच्चू बाबू ने यह बात बैठा दी कि क्या हुआ लड़की कानी है। उसकी आवाज़ तो एकदम लता मंगेशकर जैसी है। लड़कियों की शादी में वे हाथ खोलकर दान भी देते।

    पिछले कुछ सालों में बच्चू बाबू की लोकप्रयिता अपने चरम शिखर पर थी। कामगर, व्यापारी, युवक, वृद्ध, ग़रीब और पिछड़े लोग, चोर, डकैत, लठैत, राहज़न आदि उनके अहसानमन्द थे क्योंकि उन्होंने उनके जीवन को सुधारा-सँवारा था और क़स्बे में सभ्यता की ज्योति जलाई थी। समाज के हर वर्ग पर उनका गहरा प्रभाव था और लोग मसीहा की तरह उनका आदर करते थे। उनके पास पैसे और प्रतिष्ठा का अपार भण्डार एकत्रित हो गया था।

    इसी बीच टाउन एरिया की चेयरमैनी के चुनाव के दिन आ गए। कई राजनैतिक दलों ने अपने प्रत्याशी खड़े किए। सभी प्रत्याशी यह समझते थे कि जिस प्रकार केन्द्र की कृपा के अभाव में प्रदेशों का शासन नहीं चलाया जा सकता उसी प्रकार वे बच्चू की कृपा के बिना चुनाव नहीं जीत सकते। सब प्रत्याशियों ने अलग-अलग उनसे भेंट की और सहायता की याचना की। प्रत्याशियों के स्मरण दिलाने पर बच्चू बाबू को हनुमान की तरह अपनी शक्ति का बोध हुआ। उन्होंने अपने आपको मन-ही-मन बहुत धिक्कारा कि इतनी छोटी-सी बात उनकी समझ में क्यों नहीं आई। यदि वे दूसरे को चुनाव जिता सकते हैं तो ख़ुद क्यों नहीं जीत सकते ?

    चुनाव के लिए उन्होंने अपनी कमाई का पैसा ख़र्च करना उचित न समझा। अतः चुपचाप काला बाज़ारियों, जमाखोरों, चोरों और डकैतों को बुलाकर उन्होंने चुनाव फ़ंड जमा करने के आदेश दे दिए। सिनेमा की विज्ञापन मण्डली को चुनाव-प्रचार की आज्ञा दे दी गई और राहज़नों, लठैतों तथा पहलवानों को विरोधियों के दमन की नीति पर लगा दिया गया। तदुपरान्त बच्चू बाबू ने अपना नामांकन पत्र भरा। बाक़ी उम्मीदवारों ने फटी-फटी आँखों से यह ख़बर सुनी, थरथराये और रेत की दीवारों की तरह बैठ गए। बच्चू बाबू निर्विरोध चेयरमैन हुए और अपने समर्थकों द्वारा एकत्रित चुनाव फ़ंड भी साफ़ बचा ले गए।

    अब क़स्बे की समस्त सार्वजनिक उपयोग की भूमि चेयरमैन बच्चू बाबू की है। समाज का हर वर्ग उनका हिमायती है। सारा धन और प्रभाव उनके प्रयोग के लिए है। बड़े-बड़े हाकिम-हुक्मरान उनके घर कैम्प करते हैं और समस्त सरकारी कार्यक्रम बच्चू बाबू के प्रभाव के छाते के नीचे चलाए जाते हैं। राजनीतिज्ञ उनसे विचार-विमर्श के बाद नीति निर्धारित करते हैं। वे क़स्बे के बेताज बादशाह और मसीहा हैं। सब कुछ होने के बाद भी बच्चू बाबू अपने आधारभूत अस्त्र बाइस्कोप को उसी तरह पकड़े बैठे हैं जैसे बड़े अधिकारी अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए किसी-न-किसी मन्त्री को साधे रहते हैं।

साप्ताहिक हिन्दुस्तान
4 मई 1975




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